5 ـ باب: عامة أهل الجنة وعامة أهل النار

Hadith No.: 206

206 - (م) عَنْ عِيَاضِ بْنِ حِمَارٍ المُجَاشِعِيِّ: أَنَّ رَسُولَ اللهِ صلّى الله عليه وسلّم قَالَ ذَاتَ يَوْمٍ فِي خُطْبَتِهِ: (أَلاَ إِنَّ رَبِّي أَمَرَنِي أَنْ أُعَلِّمَكُمْ مَا جَهِلْتُمْ مِمَّا عَلَّمَنِي يَوْمِي هَذَا، كُلُّ مَالٍ نَحَلْتُهُ [1] عَبْداً حَلاَلٌ، وَإِنِّي خَلَقْتُ عِبَادِي حُنَفَاءَ كُلَّهُمْ [2] ، وَإِنَّهُمْ أَتَتْهُمُ الشَّيَاطِينُ فَاجْتَالَتْهُمْ [3] عَنْ دِينِهِمْ، وَحَرَّمَتْ عَلَيْهِمْ مَا أَحْلَلْتُ لَهُمْ، وَأَمَرَتْهُمْ أَنْ يُشْرِكُوا بِي مَا لَمْ أُنْزِلْ بِهِ سُلْطَاناً. وَإِنَّ اللهَ نَظَرَ إِلَى أَهْلِ الأَرْضِ فَمَقَتَهُمْ [4] ، عَرَبَهُمْ وَعَجَمَهُمْ؛ إِلاَّ بَقَايَا مِنْ أَهْلِ الكِتَابِ [5] .
وقَالَ: إِنَّما بَعَثْتُكَ لأَبْتَلِيَكَ وَأَبْتَلِيَ بِكَ
[6]
، وَأَنْزَلْتُ عَلَيْكَ كِتَاباً لاَ يَغْسِلُهُ المَاءُ [7] ، تَقْرَؤُهُ نَائِماً وَيَقْظَانَ. وَإِنَّ اللهَ أَمَرَنِي أَنْ أُحَرِّقَ قُرَيْشاً، فَقْلْتُ: رَبِّ! إِذاً يَثْلَغُوا رَأْسِي [8] فَيَدَعُوهُ خُبْزَةً. قَالَ: اسْتَخْرِجْهُمْ كَمَا اسْتَخْرَجُوكَ، وَاغْزُهُمْ نُغْزِكَ [9] ، وَأَنْفِقْ فَسَنُنْفِقُ عَلَيْكَ، وَابْعَثْ جَيْشاً نَبْعَثْ خَمْسَةً مِثْلَهُ، وَقَاتِلْ بِمَنْ أَطَاعَكَ مَنْ عَصَاكَ.قَالَ: وَأَهْلُ الجَنَّةِ ثَلاَثَةٌ: ذو سُلْطَانٍ مُقْسِطٌ مُتَصَدِّقٌ مُوَفَّقٌ. وَرَجُلٌ رَحِيمٌ رَقِيقُ القَلْبِ لِكُلِّ ذِي قُرْبَى وَمُسْلِمٍ. وَعَفِيفٌ مُتَعَفِّفٌ ذو عِيَالٍ.
قَالَ: وَأَهْلُ النَّارِ خَمْسَةٌ: الضَّعِيفُ الَّذِي لاَ زَبْرَ لَهُ
[10]
، الَّذِينَ هُمْ فِيكُمْ تَبَعاً لاَ يَتْبَعُونَ [11] أَهْلاً وَلاَ مَالاً، وَالخَائِنُ الَّذِي لاَ يَخْفَى لَهُ طَمَعٌ [12] ، وَإِنْ دَقَّ إِلاَّ خَانَهُ، وَرَجُلٌ لاَ يُصْبِحُ وَلاَ يُمْسِي إِلاَّ وَهُوَ يُخَادِعُكَ عَنْ أَهْلِكَ وَمَالِكَ) . وَذَكَرَ البُخْلَ أَوِ الكَذِبَ، (وَالشِّنْظِيرُ [13] الفَحَّاشُ) .

इयाज़ बिन हिमार मुजाशिई (रज़ियल्लाहु अनहु) का वर्णन है कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने संबोधन में फ़रमाया: सुन लो, मेरे रब ने मुझे आदेश दिया है कि उसने आज मुझे जो बातें सिखाई हैं, उनमें से वह बातें मैं तुम्हें बता दूँ, जो तुम नहीं जानते। (अल्लाह तआला का फ़रमान है) हर वह माल, जो मैंने अपने बंदे को दिया है, वह उसके लिए हलाल है। मैंने अपने सारे बंदों को एक अल्लाह की वंदना करने वाला बनाकर पैदा किया है। फिर शैतान उनके पास आए और उन्हें उनके धर्म से बहकाने लगे। उनपर वह चीज़ें हराम कर दीं, जो मैंने उनके लिए हलाल की थीं। उन्हें आदेश दिया कि उन चीज़ों को मेरा साझी ठहराएँ, जिनके साझी होने की कोई दलील मैंने नहीं उतारी है। अल्लाह ने धरती की ओर देखा, तो कुछ बचे- खुचे अह्ले किताब (यहूदी और ईसाई) को छोड़कर उनके अरब तथा ग़ैरअरब सबसे नाराज़ हुआ तथा फ़रमाया: मैंने तुम्हें इसलिए भेजा है, ताकि तुम्हें आज़माऊँ और तुम्हारे द्वारा अन्य लोगों को भी। मैंने तुमपर एक ऐसी किताब उतारी है, जिसे पानी धो नहीं सकता। तुम उसे सोते- जागते पढ़ते हो। अल्लाह ने मुझे आदेश दिया है कि मैं क़ुरैश को जला डालूँ। मैंने कहा: ऐ मेरे रब! तब तो वे मेरे सर को कुचलकर रोटी बना देंगे। अल्लाह ने कहा: उन्हें निकालो, जैसे उन्होंने तुम्हें निकाला, उनसे युद्ध करो, हम तुम्हें युद्ध करने की शक्ति प्रदान करेंगे, ख़र्च करो, हम तुमपर ख़र्च करेंगे, तुम सेना भेजो, हम उस जैसी पाँच सेनाएँ भेजेंगे तथा अपने मानने वालों को साथ लेकर उन लोगों से युद्ध करो, जो नहीं मानते। अल्लाह ने कहा: जन्नती तीन प्रकार के लोग होंगे: न्यायकारी, सदक़ा करने वाला और अल्लाह की ओर से सत्य पर चलने का सामर्थ्य प्राप्त किया हुआ बादशाह, सभी रिश्तेदारों तथा मुसलमानों के लिए नर्म दिल तथा दयालु व्यक्ति एवं पाकदामन और माँगने से बचने वाला परिवार वाला। अल्लाह ने कहा: जहन्नम में पाँच प्रकार के लोग दाख़िल होंगे: बुद्धिहीन कमज़ोर जो तुम्हारे अधीन हो और परिवार तथा धन की चाहत न रखता हो, ऐसा छल करने वाला, जिसका लालच छुपा नहीं रहता, छोटी से छोटी चीज़ के बारे में भी छल करने पर उतर आता हो और ऐसा व्यक्ति, जो तुम्हें सुबह व शाम तुम्हारे परिवार तथा धन के बारे में धोखा दे। तथा कंजूस अथवा झूठे व्यक्ति और ऐसे बदचलन एवं अशिष्ट आदमी का भी ज़िक्र किया, जो गंदी तथा अश्लील भाषा प्रयोग करता हो।

قال تعالى: {وَأُزْلِفَتِ الْجَنَّةُ لِلْمُتَّقِينَ *وَبُرِّزَتِ الْجَحِيمُ لِلْغَاوِينَ *}. [الشعراء: 90، 91]

[م2865]

206 - زاد في رواية: (وَإِنَّ اللهَ أَوْحَى إِلَيَّ أَنْ تَوَاضَعُوا حَتَّى لاَ يَفْخَرَ أَحَدٌ عَلَى أَحَدٍ، وَلاَ يَبْغِي أَحَدٌ عَلَى أَحَدٍ) .

قال تعالى: {وَأُزْلِفَتِ الْجَنَّةُ لِلْمُتَّقِينَ *وَبُرِّزَتِ الْجَحِيمُ لِلْغَاوِينَ *}. [الشعراء: 90، 91]